किसान आंदोलन लगातार 55 दिनों से जारी है. दसवें दौर की वार्ता में आज सरकार ने किसानों के सामने कृषि कानूनों (Farm Laws) को डेढ़ से 2 साल तक होल्ड पर रखने का प्रस्ताव रखा है. लेकिन MSP के संबंध में अभी भी सरकार की चुप्पी बरकरार है.
आज 20 जनवरी को विज्ञान भवन में आयोजित किसान नेताओं और सरकार के नुमाइंदों के बीच दसवीं दौर की वार्ता संपन्न हो गई. इस वार्ता को बेनतीजा कहना तो सही नहीं है क्योंकि सरकार ने जो प्रस्ताव किसानों के सामने रखा है उसके कई मायने हैं.
अब देखना यह है कि इस प्रस्ताव पर किसानों की क्या प्रतिक्रिया होगी. क्योंकि एमएसपी के संबंध में सरकार की चुप्पी से शायद ही किसान वर्ग इस प्रस्ताव को स्वीकार करे. किसानों और सरकार के बीच अगली दौर की बातचीत 22 जनवरी को तय की गई है.
ऐसा पहली बार लग रहा है कि किसान आंदोलन का असर सरकार पर पड़ने लगा है. यह पहली बार है जब सरकार ने कृषि कानूनों को स्थगित रखने की पेशकश की है.
जब कृषि कानूनों के समर्थन में देश भर में भाजपा द्वारा की जाने वाली किसान पंचायत को बीजेपी के शीर्ष नेताओं द्वारा स्थगित किया गया था तो वहां से भी संकेत मिलने लग गए थे कि सरकार कहीं ना कहीं अब किसानों के दबाव में आने लगी है.
इससे पहले केंद्र ने जो संदेश दिया वह इस भावना के विपरीत था. केंद्रीय मंत्रियों ने पहले किसानों से कुछ वर्षों के लिए कानून को लागू करने का आग्रह किया था.
सरकार के इस फैसले के पीछे सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मनोवैज्ञानिक दबाव से भी इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि पिछले दिनों सुनवाई के दौरान Supreme court ने साफ-साफ कह दिया था हम ट्रैक्टर रैली पर रोक नहीं लगाएंगे, कानून व्यवस्था से निपटना पुलिस का काम है.
कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि कानून को होल्ड पर रखने का यह फैसला 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस पर सुरक्षा व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए भी लिया गया हो.
जब सरकार के प्रस्ताव पर किसान नेताओं से बात की गई तो उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कानूनों को लटकाने का कोई मतलब नहीं है और यह स्पष्ट है कि किसान कानूनों को निरस्त कराना चाहते हैं इससे कम कुछ नहीं.लेकिन फिर भी केंद्र सरकार के प्रस्ताव पर किसान संगठनों के रुख में आज थोड़ी नरमी देखने को मिली है.
किसान संगठनों का यह कहना भी है कि वे इस प्रस्ताव पर कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं लेंगे क्योंकि उनकी प्राथमिकता तीनों कृषि कानूनों की वापसी और MSP पर नया कानून बनवाने की है फिर भी वे आपसी सलाह मशविरा कर 22 जनवरी को होने वाली 11वें दौर की बैठक में सरकार को अपने रुख से अवगत कराएंगे.
अंत में उन तीन कृषि कानूनों पर चर्चा आवश्यक है जिनको लेकर इतना विवाद उत्त्पन्न हुआ है. आखिर ये तीनों कानून कौन-कौन से हैं और किसानों को इन कानूनों पर क्या आपत्तियां है साथ ही साथ सरकार इसे कैसे लाभकारी बता रही हैं:-
पहला कानून :- द फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फ़ैसिलिटेशन) (कृषि उत्पाद व्यापार व वाणिज्य कानून 2020)
इस कानून के मुताबिक़ किसान अपनी उपज APMC यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की ओर से अधिसूचित मण्डियों से बाहर बिना दूसरे राज्यों को TAX दिये बेच सकते हैं. यानी इस कानून के अंतर्गत किसान अपनी फसल देश के किसी भी हिस्से में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं. इससे पहले की प्रणाली के अंतर्गत किसान सिर्फ पास की मंडी में ही फसल बेच सकते थे.इस पर किसानों को यह आपत्ति है कि इसका लाभ बिचौलियों को मिलेगा ना कि उनको.
दूसरा क़ानून :- फ़ार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फ़ार्म सर्विस क़ानून,( मूल्य आश्वासन व कृषि सेवा कानून 2020):-.
इसके अनुसार, किसान अनुबंध वाली खेती (Contract Farming) कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं. इसका अर्थ है किसान अनुबंध के आधार पर खेती के लिए आजाद हो गए हैं. लेकिन किसानों ने इस पर आपत्ति दर्ज की है.
किसानों का कहना है कि फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी. बड़ी कंपनियां छोटे और मझोले किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी. अनुबंध के आधार पर खेती यानी कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात करें तो अमेरिका जैसे बड़े देश में भी इसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है पूरे बाजार पर दो या तीन कंपनियों का कब्जा हो जाता है.
तीसरा क़ानून :- इसेंशियल कमोडिटीज़ (एमेंडमेंट) क़ानून( आवश्यक वस्तु संशोधन कानून 2020):-
इसमें उत्पादन, स्टोरेज के अलावा अनाज, दाल, खाने का तेल, प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है.
यानी आपात स्थितियों को छोड़कर आलू प्याज अनाज दलहन तिलहन और खाने वाले तेल के लिए भंडारण की अब कोई सीमा नहीं रही. इन सभी को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है.
किसानों,अर्थशास्त्रियों और मार्केट एक्सपर्ट का कहना है कि इससे इन वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि होगी साथ ही साथ कालाबाजारी की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता है.
सरकार का तर्क है कि नये कानून किसानों के लिए नए विकल्प के द्वार खोलेंगे साथ ही साथ Infrastructure के लिए निजी निवेश को बढ़ावा भी देंगे. सरकार इन तीन कानूनों को कृषि विकास की रीढ़ की हड्डी बता रही है.
लेकिन किसानों का कहना है “हमारे पास भंडारण की सुविधा नहीं है, इस कारण इसका लाभ बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिलेगा और वे किसानों से बहुत ही कम दामों पर सौदा करेंगी”.
लेकिन किसान सिर्फ इन तीन कानूनों को वापस कराने के लिए आंदोलन नहीं कर रहें हैं बल्कि वे MSP की गारंटी भी चाहते हैं, क्योंकि इन तीन कृषि कानूनों में कहीं भी एमएसपी के संबंध में कोई भी बात नहीं कही गई है, ना तो एमएसपी देने की ना तो एमएसपी हटाने की…