बिहार के चंपारण(Champaran) में गांधी(Gandhi) का अपमान गांधी की मूर्ति के टुकड़े टुकड़े किए, क्या बिहार में भी अब गांधी विरोधी मानसिकता का हो रहा है प्रसार??
बिहार के मोतिहारी(Motihari) से एक बड़ी खबर सामने आ रही है जहां कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा गांधी की प्रतिमा को खंडित कर इधर-उधर फेंक दिया गया.
प्रतिमा को जिस प्रकार से खंडित किया गया है उससे उपद्रवी तत्वों की घृणित मानसिकता का पता चलता है. मोतिहारी से जो तस्वीरें सामने आ रही है उसमें यह साफ देखा जा सकता है कि गांधी के शरीर का ऊपरी हिस्सा पैरों से अलग कर दिया गया है तो वहीं हाथों को तोड़ कर फेंक दिया गया है.
पूर्वी चंपारण जिले के मोतिहारी में सोमवार की सुबह महात्मा गांधी की आदम कद प्रतिमा जिसे कि चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी पर स्थापित किया गया था पुलिस के अनुसार वह खंडित अवस्था में मिली है.
किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि जिस चंपारण से महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा की लड़ाई की शुरुआत की थी वहीं गांधी के साथ ऐसा सलूक किया जाएगा.
चंपारण गांधी और देश के लिए क्यों महत्वपूर्ण है इसके लिए हमें चंपारण आंदोलन को समझना जरूरी होगा तो आइए जानते हैं चंपारण आंदोलन के बारे में.
चंपारण आंदोलन(Champaran Movement) गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से साल 1915 में 9 जनवरी को भारत वापस लौटे, बताते चलें कि इसी दिन भारत में प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है.
जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो देश के लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ. लोगों को गांधी के रूप में एक ऐसा विश्वास मिल गया था जैसे कि गांधी उनके सभी दुखों की दवा हैं.
लोगों में यह विश्वास यूं ही नहीं आया था बल्कि इसके पीछे था गांधी का दक्षिण अफ्रीका में वह संघर्ष जिसकी कहानी लोगों ने आत्मसात कर ली थी.
महात्मा गांधी को भारत में ख्याति दिलाने में उनके राजनीतिक गुरु गोखले का काफी बड़ा योगदान था, जिन्होंने भारत में घूम-घूम कर जनमानस में गांधी की एक ऐसी तस्वीर गढ़ दी थी कि गांधी ही हैं जो उनके दुखों का अंत कर सकते हैं.
गोखले के प्रचार प्रसार का ही परिणाम था कि पढ़े-लिखे हो या अनपढ़ सभी गांधी शब्द से परिचित हो चुके थे. गांधी जहां भी जाते उनको देखने के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ता.
गांधी को भी भारत में जन आंदोलन को खड़ा करने के लिए उर्वरक भूमि की तलाश थी जहां से सत्य अहिंसा को साथ रखकर आंदोलन चलाया जा सके.
गांधी की एक आदत थी या फिर कहें एक सिद्धांत वह यह कि जब तक कि वह किसी भी समस्या या मुद्दे को पूरी तरह समझ नहीं लेते थे तब तक उसमें हस्तक्षेप नहीं करते थे.
चंपारण आंदोलन के लिए भी उन्होंने यही किया साल 1917 में चंपारण के राजकुमार शुक्ल ने जब गांधी जी को चंपारण में नील की खेती में लगे किसानों की आपबीती सुनाई तो गांधीजी ने तुरंत आंदोलन करने का फैसला नहीं लिया बल्कि वह खुद चंपारण पहुंचकर वहां के हालात का जायजा लेने का निर्णय लिया.
जब गांधी चंपारण पहुंचे तो वहां के कमिश्नर ने उन्हें वहां से लौट जाने का आदेश दे दिया. लेकिन गांधीजी ने आदेश को नहीं माना साथ ही यह भी कहा कि वह हिंसा का सहारा नहीं लेंगे बल्कि जो भी सजा दी जाएगी उसे वह सहर्ष स्वीकार करेंगे
चंपारण नहीं छोड़ने के पीछे गांधी का यह तर्क था कि देश में प्रत्येक व्यक्ति को कहीं भी जाने आने की इजाजत होनी चाहिए.
अभी तक ऐसा होता आया था कि जब भी अंग्रेजी अफसर कोई भी आदेश देते थे तो उसे या तो सहज रूप से स्वीकार कर लिया जाता था या फिर उसका विरोध प्रदर्शन किया जाता था लेकिन अंततोगत्वा उसे मानना ही होता था पर यह पहली बार था कि किसी व्यक्ति ने बिना हिंसा का सहारा लिए आदेश मानने से इनकार कर दिया था.
गांधी के इस व्यवहार से जहां अंग्रेजी अफसरों की मुश्किलें बढ़ गई तो वहीं आम जनमानस में सत्याग्रह और अहिंसा के प्रति एक नई जिज्ञासा जागी. मामले को बढ़ता देख गांधी को वापस भेजने का फरमान वापस ले लिया गया.
जब गांधी को चंपारण में जाने की अनुमति मिल गई तो सबसे पहले गांधी जी ने चंपारण के नील किसानों से मुलाकात की और घूम घूम कर यह पता किया कि आखिर मुद्दा क्या है और सच्चाई क्या है.
गांधी जब किसानों से मिलते तो उनकी बातें गौर से सुनते और जब अफसरों से मिलते तो उनकी भी राय बड़े गौर से सुनते. ऐसा कर गांधी ने किसानों और अंग्रेजों दोनों के ही मनोभाव को ठीक से समझ लिया.
गांधी ने जो सबूत इकट्ठे किए थे वह सभी इतने पर्याप्त है कि अंग्रेज सरकार को नील किसानों को न्याय दिलाने के लिए कमेटी बनानी पड़ी और जिस गांधी को किसानों से नहीं मिलने दिया जा रहा था और वापस लौट जाने का फरमान जारी कर दिया गया था उसी गांधी को समिति का सदस्य भी बनाया गया.
गांधीजी ने अंग्रेजो के सामने यह प्रस्ताव रखा कि नील की खेती से संबंधित तिनकठिया पद्धति जिस पद्धति के अंतर्गत चंपारण के किसानों को अपनी जमीन के 3/20 हिस्से में किसी भी कीमत पर नील की खेती करनी होती थी और जिस कारण किसानों की उपजाऊ जमीन बंजर हो जाती थी लेकिन अंग्रेजों के अनुबंध के कारण वह चाहकर भी नील की खेती बंद नहीं कर सकते थे, उसे अविलंब समाप्त किया जाए.
गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद किसानों को नील की खेती यानी तिनकठिया पद्धति से मुक्ति तो मिली ही साथ ही किसानों से जो अवैध वसूली हुई थी उसका 25% वापस करने पर भी अंग्रेज अफसर राजी हो गए.
शायद भारतीय इतिहास में यह पहली बार हो रहा था कि एक सामान्य से दिखने वाले अहिंसा का सहारा लेने वाले व्यक्ति के आगे अंग्रेजी हुकूमत झुकती हुई नजर आ रही थी.